Mahakavi Pandit shri Banarasidasji
महाकवि पंडित श्री बनारसीदास जी
बीहोलिया वंश की परंपरा में श्रीमाल जाति के अंतर्गत बनारसीदास जी का जन्म एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। इनके पितामह श्री मूलदास जी हिंदी और फारसी के अच्छे विद्वान थे। इनके पिता श्री खडगसेन जी बंगाल के सुल्तान मोदी खा के कुछ दिनों तक पोतदार रहे, बाद में उन्होंने जौनपुर में जवाहरात का व्यापार प्रारंभ किया।
पिता खडगसेन को बहुत दिनों तक संतान की प्राप्ति नहीं हुई। कई वर्षों बाद विक्रम संवत 1648 माघ शुक्ला एकादशी दिन रविवार को बनारसीदास जी का जन्म हुआ। उस समय बालक का नाम विक्रमाजीत रखा गया। विक्रमाजीत के जन्म के छह-सात महीने के बाद खडगसेन अपने परिवार के साथ सम्मेद शिखर की यात्रा करने गए तब रास्ते में बनारस भी गए और वहां के जिनमंदिर के पुजारी ने मायाचारी की बातें करके कहा कि तुम्हारा पुत्र दीर्घायु होगा इसलिए इसका नाम बनारसीदास रख दो। तब से ही विक्रमाजीत का नाम बनारसी दास हो गया। बनारसी दास जी का जन्म श्वेतांबर संप्रदाय में हुआ था और इनका संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। 9 वर्ष की उम्र में ही इनकी सगाई हो गई और 11 वर्ष की उम्र में इनका विवाह हो गया। 14 वर्ष की उम्र में इन्होंने पंडित देवीदास जी से ज्योतिष शास्त्र, अलंकार, अनेकार्थ नाम माला आदि का गहन अध्ययन किया। बाद में मुनि भानुचंद्र से भी अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। साथ ही व्याकरण, छंद, स्तवन, सामायिक पाठ का भी भरपूर अभ्यास किया। पंडित जी की प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि वह संस्कृत के बड़े-बड़े ग्रंथों को आसानी से समझ लेते थे। 14 वर्ष की उम्र में ही उनके कदम लड़खड़ा गए और उन्होंने श्रृंगार की रचना नवरस का निर्माण किया। इसमें लगभग एक हजार दोहा, चौपाई प्रमाण छंद रचना की थी। बाद में ज्ञान होने पर उन्होंने उस रचना को गोमती नदी में प्रवाहित कर दिया। जीवन में ऐसा समय भी आया कि उनकी स्थिति बहुत खराब हो गई और आर्थिक रूप से पूरी तरह कंगाल हो गए। वह अपने एक परिचित के यहाँ से सुबह-शाम उधार लेकर कचौड़ीयाँ खाते थे। पंडित बनारसीदास जी के तीन विवाह हुए इनकी प्रथम दो पत्नियों से 9 संतानें हुईं और दुर्भाग्यवश 9 का ही देहविलय हो गया। वि.स.1680 में कवि बनारसीदास जी को पंडित राजमल जी कृत समयसार की हिंदी टीका प्राप्त हुई। इस ग्रंथ का अध्ययन करने से उन्हें दिगंबर संप्रदाय की श्रद्धा हो गई। संवत 1692 में पंडित रूपचंद जी पांडेय जब आगरा आए तो उनके द्वारा गोम्मत्सार ग्रंथ पर प्रवचन सुनकर दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी बन गए। पंडितजी का समय 17वीं शताब्दी विक्रम संवत निश्चित है। पंडित बनारसीदास जी को हिंदी साहित्य की सर्वप्रथम आत्मकथा अर्धकथानक लिखने का गौरव प्राप्त है। पंडित जी ने अपने जीवन काल में 6 रचनाएं लिखी।
1. नाम माला - इस ग्रंथ में 175 दोहे हैं।
2. नाटक समयसार - यह कवि बनारसीदास जी की सर्वश्रेष्ठ और अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है। इस ग्रंथ में आचार्य अमृतचंद्र द्वारा लिखित समयसार के कलशों पर देश भाषा में पद्य लिखे गए हैं। इसमें 277 पद्य हैं। यह ग्रंथ अत्यंत रोचक और उसके छंद बहुत सरस हैं। नाटक समयसार में अज्ञानी की विभिन्न अवस्थाएं, ज्ञानी की अवस्थाएं, ज्ञानी का हृदय, संसार और शरीर का स्वरूप दर्शन, आत्म जागृति, आत्मा की अनेकता, मन की विचित्र दौड़, सप्त व्यसनों का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इसको जीव, अजीव आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तत्वों को काव्य रूप में चित्रित किया गया है।
3. बनारसी विलास - इस ग्रंथ में महाकवि बनारसी दास जी की 48 रचनाओं का संकलन है। इसमें जिन सहस्त्रनाम, सूक्ति मुक्तावली, ज्ञान बावनी, अध्यात्म बत्तीसी, ज्ञान पच्चीसी, शारदाष्टक, शांतिनाथ स्तुति आदि अनेक विभिन्न रचनाएं हैं।
4. अर्ध कथानक - इसमें कवि ने अपने संपूर्ण 55 वर्षों के जीवन का वर्णन विस्तार से किया है। यह संपूर्ण हिंदी साहित्य की सबसे पहली आत्मकथा है।
5. मोह विवेक युद्ध - इस ग्रंथ में 110 दोहा-चौपाई हैं। यह लघु खंडकाव्य है जिसमें मोह और विवेक के रूप से युद्ध का प्रसंग बनाया गया है।
6. नवरस पद्यावली - यह कवि की अज्ञान अवस्था में बनाई गई श्रृंगार रस की रचना है जिसे उन्होंने स्वयं नदी में प्रवाहित कर दिया था।